लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> अमृत द्वार

अमृत द्वार

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9546

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

353 पाठक हैं

ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ


अमृत द्वार


अहोभाव

मेरे प्रिय आत्मन,

एक नया मंदिर बन रहा था उस मार्ग से जाता हुआ एक यात्री उस नव निर्मित मंदिर को देखने के लिए रुक गया। अनेक मजदूर काम कर रहे थे। अनेक कारीगर काम कर रहे थे। न मालूम कितने पत्थर तोड़े जा रहे थे। एक पत्थर तोड़ने वाले मजदूर के पास वह यात्री रुका और उसने पूछा कि मेरे मित्र, तुम क्या कर रहे हो? उस पत्थर तोड़ते मजदूर ने क्रोध से अपने हथौड़े को रोका और उस यात्री की तरफ देखा और कहा, क्या अंधे हो! दिखाई नहीं पडता? मैं पत्थर तोड़ रहा हूँ। और वह वापस अपना पत्थर तोड़ने लगा। वह यात्री आगे बढ़ा और उसने एक दूसरे मजदूर को भी पूछा जो पत्थर तोड़ रहा था। उससे भी पूछा, क्या कर रहे हो? उस आदमी ने अत्यंत उदासी से आखें ऊपर उठाई और कहा, कुछ नहीं कर रहा, रोटी-रोटी कमा रहा हूँ। वह वापस फिर अपना पत्थर तोड़ने लगा। वह यात्री और आगे बढ़ा और मंदिर की सीढ़ियों के पास पत्थर तोड़ते तीसरे मजदूर से उसने पूछा, मित्र क्या कर रहे हो? वह आदमी एक गीत गुनगुना रहा था। और पत्थर भी तोड़ रहा था। उसने आँखें ऊपर उठायीं। उसकी आँखों में बड़ी खुशी थी। और वह बड़े आनंद के भाव से बोला, मैं भगवान का मंदिर बना रहा हूँ। फिर वह गीत गुनगुनाने लगा और पत्थर तोड़ने लगा।

वह यात्री चकित खड़ा हो गया और उसने कहा कि तीनों लोग पत्थर तोड़ रहे हैं। लेकिन पहला आदमी क्रोध से कहता है कि मैं पत्थर तोड़ रहा हूँ, आप अँधे हैं? दिखाई नहीं पड़ता? दूसरा आदमी भी पत्थर तोड़ रहा है, लेकिन वह उदासी से कहता है कि मैं रोजी रोटी कमा रहा हूँ। तीसरा आदमी भी पत्थर तोड़ रहा था, लेकिन वह कहता है, आनंद से गीत गाते हुए कि मैं भगवान का मंदिर बना रहा हूं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book